वेदों में संसार को "दुखालयम" की संज्ञा दी है एवं कलिकाल इस संदर्भ से चारों और के संकटों से कंटाकाकीर्ण है। इन्ही सभी संकटों से मुक्ति हेतु श्री महर्षि वेद व्यास पुत्र श्री शुकदेव गोस्वामी जी द्वारा इस संकटनाशक स्तोत्र की रचना की गई।
श्री हयग्रीव अवतार |
श्री विष्णु ने हयग्रीव अवतार लेकर मधु और कैटभ नमक असुरों के वध करने से उनके अनेक नामों में श्री मधुसुदन नाम से भी संबोधन किया जाने लगा। महाभारत काल में माता कुन्ती सहित पंच पांडव भी श्री कृष्ण को कई बार हे मधुसुदन नाम से संबोधित करते हुए बताएं जातें है। जिससे स्पष्ट है कि पंच पांडव इस बात से भली भांति अवगत थे की संसार संकटों से कंटकाकीर्ण है इसलिए हमें श्री मधुसुदन नाम से सदेव श्री कृष्ण को संबोधन करते रहना चहिए क्योंकी उन्हें ये ज्ञात था के " दूस्वप्ने स्मर गोविंदम संकटे मधुसुदन "।
मधुसुदन स्तोत्र को वैसे तो नित्य किसी शुभ दिन से नित्य पाठ किया जा सकता है परंतु ऐसा न हो सके तो नीचे बताए गए दिनों में श्री संकटमोचन गणेश स्त्रोत्र के एकबार पाठ करने के उपरांत श्री मधुसुदन स्तोत्र का पाठ श्री तुलसी देवी के समीप, गौशाला, नदी तट, कृष्ण मंदिर या किसी पवित्र स्थान में आसन युक्त होकर 108 बार पाठ करने पर संसार के सभी संकटों से दूर हो जाता है। कार्तिक मास में दामोदर अष्टक के साथ संपूर्ण कार्तिक मास में भी इसका पाठ कर सकतें है। करुणामय श्री कृष्ण की कृपा से वह भी संकट मुक्त हो जाता है।
2. विजयादशमी (दशहरा)
3. अक्षय तृतीया (अखातीज)
4. कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा का आधा भाग
5. हयग्रीव जयंती
6. श्री कृष्ण जन्माष्टमी
7. कार्तिक देव प्रबोधिनी एकादशी
8. बसंत पंचमी
उपर्युक्त तिथियों को स्वयं सिद्ध मुहूर्त की मान्यता प्राप्त है। इन तिथियों में बिना मुहूर्त का विचार किए नवीन कार्य प्रारम्भ किए जा सकते हैं। विभिन्न मतांतर से देवप्रबोधिनी एकादशी को भी अबूझ और पवित्र मुहूर्त में शामिल किया जाता है। इन तिथियों में श्री मधुसुदन स्त्रोत्र का पाठ विशेष शुभ फलदायी है।
श्री मधुसूदन स्तोत्रम
ओमिति ज्ञानमात्रेण रोगाजीर्णेन निर्जिता ।
कालनिद्रां प्रपन्नोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥ १॥
न गतिर्विद्यते चान्या त्वमेव शरणं मम ।
पापपङ्के निमग्नोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥ २॥
मोहितो मोहजालेन पुत्रदारगृहादिषु ।
तृष्णया पीड्यमानोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥ ३॥
भक्तिहीनं च दीनं च दुःखशोकातुरं प्रभो ।
अनाश्रयमनाथं च त्राहि मां मधुसूदन ॥ ४॥
गतागतेन श्रान्तोऽस्मि दीर्घसंसारवर्त्मसु ।
येन भूयो न गच्छामि त्राहि मां मधुसूदन ॥ ५॥
बहवो हि मया दृष्टाः क्लेशाश्चैव पृथक् पृथक् ।
गर्भवासे महद्दुःखं त्राहि मां मधुसूदन ॥ ६॥
तेन देव प्रपन्नोऽस्मि त्राणार्थं त्वत्परायणः ।
दुःखार्णवपरित्राणात् त्राहि मां मधुसूदन ॥ ७॥
वाचा यच्च प्रतिज्ञातं कर्मणा नोपपादितम् ।
तत्पापार्जितमग्नोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥ ८॥
सुकृतं न कृतं किञ्चिद्दुष्कृतं च कृतं मया ।
संसारघोरे मग्नोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥ ९॥
देहान्तरसहस्रेषु चान्योन्यभ्रामितो मया ।
तिर्यक्त्वं मानुषत्वं च त्राहि मां मधुसूदन ॥ १०॥
वाचयामि यथोन्मत्तः प्रलपामि तवाग्रतः ।
जरामरणभीतोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥ ११॥
यत्र यत्र च यातोऽस्मि स्त्रीषु वा पुरुषेषु च ।
तत्र तत्राचला भक्तिस्त्राहि मां मधुसूदन ॥ १२॥
गत्वा गत्वा निवर्तन्ते चन्द्रसूर्यादयो ग्रहाः ।
अद्यापि न निवर्तन्ते द्वादशाक्षरचिन्तकाः ॥ १३॥
ऊर्ध्वपातालमर्त्येषु व्याप्तं लोकं जगत्त्रयम् ।
द्वादशाक्षरात्परं नास्ति वासुदेवेन भाषितम् ॥ १४॥
द्वादशाक्षरं महामन्त्रं सर्वकामफलप्रदम् ।
गर्भवासनिवासेन शुकेन परिभाषितम् ॥ १५॥
द्वादशाक्षरं निराहारो यः यः पठेद्धरिवासरे ।
स गच्छेद्वैष्णवं स्थानं यत्र योगेश्वरो हरिः ॥ १६॥
इति श्रीशुकदेवविरचितं मधुसूदनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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