Calotropis gigantea (श्वेतार्क ) सफेद मदार |
एक पौराणिक कथानुसार एक बार एक भक्त ने महादेव की घोर तपस्या करने का संकल्प लिया परन्तु ईश्वर का सान्निध्य इतना आसान नही था उसके लिए कठोर तपोबल की जरूरत थी इसलिए महादेव की परमपद प्राप्ति की मनोवासना से एकनिष्ठ और तल्लीनता से उसने तपस्या प्रारम्भ किया। दीर्घकाल तपस्या करते करते वृद्धावस्था में एकदिन मृत्यु को प्राप्त हो गया। दूसरे जन्म में भी उसकी साधना को पूर्णता प्राप्त नही हुई और इस तरह कठोर तपस्या में ऐसे ही सत्रह १७ जन्म बीत गया। कई जन्मों के इस कठोर तप से तब भोले भंडारी विचलित हो उठे एवं भक्त के समीप प्रकट हुए तथा इच्छित वर मांगने को कहा। अपने समक्ष आराध्य देवता के आंखों देखी प्रत्यक्ष दर्शन से भक्त का हृदय प्रेम रस से प्लावित हो उठा तथा दोनों हाथ जोड़कर कहा कि प्रभु जिसके सत्रह १७ जन्म आपके तपस्या में बीत गए उसे किसी और वर की क्या आवश्यकता होगी। है महादेव में आपमें विलीन हो जाना चाहता हूँ यही उद्देश्य मेरा पूर्ण हो। भक्त की इस बात से महादेव अत्यंत प्रसन्न होकर आशीर्वाद देकर बोले कि कई जन्मों की कठोर साधना से तुम्हारी अन्तरात्मा विशुद्ध हो चुकी है। में तुम्हारे दीर्घ साधना और तपस्या से अत्यधिक प्रसन्न हूँ और वर देता हूँ कि आज से पृथिवी पर तुम श्वेतार्क वृक्ष के रूप में जन्म लोगे एवं तुम्हारे पुष्प से मेरी पूजा की जाएगी और यही नही बल्कि मेरे पुत्र गणेश स्वयं वृक्ष के मूल ( जड़ ) में निवास करेंगे। जो व्येक्ति जड़ निकालने के नियम सहित इस मूल को धनिष्ठा नक्षत्र या रविपुष्य नक्षत्र में निकालकर गणपति का आकार देकर विधिवत उपासना करेगा उस साधक को धन, ऐश्वर्य एवं अत्यंत शांति प्रदान करने वाला होगा। आज से संसार में तुम्हें मेरे पुत्र रूप में ही स्वीकृति मिलेगी। इस तरह इस संसार एवं धराधाम में श्वेतार्क गणपति की पूजा अर्चना का प्रारंभ हुआ।
विधवत पूजा एवं दिशानुसार श्वेतार्क की जड़ का चयन-
श्वेतार्क गणपति पूजा मूलतः अपने प्रयोजन अनुसार मनोकामना पूर्ति के लिए ही किया जाता रहा है। वैसे वेदों में मनोकामनापूर्ति के ऐसे कई उपाय बताएं गए हैं जिन्हे सिद्ध करने पर अपने इच्छा अनुसार परम सिद्धि को प्राप्त करते है लेकिन वर्तमान समय में कई लोग कठिनाई भरे पूजा अर्चना को छोड़कर टोने -टोटके आदि का सहारा लेकर इच्छापुरक कर्मों को करने का प्रयास करते है जिनसे उन्हें परिणाम में असफलता ही हाथ लगता है इसलिए इस संदर्भ में पाठकों के निमित्त मनोकामनापूर्ति के विषय में एक बहुचर्चित एवं अत्यंत प्रामाणिक प्रकिया से अवगत कराना मेरा प्रथम कर्तव्य बन जाता है। सूर्य के उत्तरायण में संचार कालीन
रविपुष्यामृत योग का कोई ऐसा संयोग वाला दिन आ जाये तो उस दिन श्वेतार्क के किसी पूराने वृक्ष की जड़ को सही विधि सहित तोड़ लाएं लेकिन ये ध्यान में रखें कि पूर्व दिशा के जड़ से मान-सन्मान, राजकीय या सरकारी कृपा की प्राप्ति, उन्नति एवं सफलता के लिए, पश्चिम दिशा की जड़ से शत्रु या विरोधी पक्ष को क्षति पहुंचाने के लिए, उत्तर दिशा की जड़ से धन एवं लक्ष्मी की प्राप्ति या किसी को वश में करने के लिए तथा दक्षिण दिशा के जड़ से शत्रु की मृत्यु या विनाश एवं रोगों का नाश के लिए लिया जाता है। साधक अपने इच्छा के अनुरूप वाली दिशा का जड़ लाकर किसी मूर्तिकार से उसीदिन श्वेतार्क की जड़ से गणपति की संभावित मूर्ति का निर्माण कराएं। इसमें यह ध्यान रखें कि यह मूर्ति तकरीबन अपनी दाहिने हाथ की अंगूठे के बराबर ही होनी चाहिये तथा उससे अधिक बड़ा नही होना चाहिए। अंगूठे से बड़े होने पर यह साधना विफल होती है।
इस साधना में श्वेतार्क गणपति जी को लाल कनेर के पुष्प द्वारा पूजा करना अनिवार्य होता है। जातक स्वयं या किसी ब्राह्मण द्वारा अपने नाम गोत्र का उच्चारण कर संकल्प कर उसी दिन से तकरीबन एक महीने पूजा का अनुष्ठान पूर्ण ब्रम्हचर्य पालन सहित शाकाहारी भोजन करना पड़ता है। इसमे ध्यान देने वाली बात यह है कि लाल कनेर पुष्प चैत्र के अंत से वैशाख या जेठ के महीने में ही खिलता है इसलिए वैशाख के महीने में परने वाली किसी रविपुष्यामृत का चुनाव ही बेहतर है। इस प्रक्रिया से पुजा सम्पन्न करने पर साधक के सभी इच्छाओँ की पूर्ति हो जाती है।
पूजा मंत्र-"ॐ गां गणेशाय नमः। " ॐ पंचातबां ॐ आंतरिक्षाय स्वाहा । "
पुजा के बाद (लाल कनेर) व शुद्ध गाय के घी के साथ शहद का मिश्रण करके ऊपरी उक्त मंत्र द्वारा १०८ बार होम कार्य सम्पन्न करें। होम समाप्त होने पर नीचे दिए गए मंत्र का १००८ बार रुद्राक्ष की माला से जप कार्य सम्पन्न करें।
जप मंत्र-"ॐ ह्रीं श्रीं मानसे सिद्धिकरि ह्रीं नमः।"
अंत मे इसी जप मंत्र को १०८ बार बोलते हुए पूजा के पुष्प एवं सभी पूजित सामग्रियों को नदी में विसर्जित कर दें। इस साधना के पूर्ण होने के कुछ ही दिनों बाद जातक की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है। यह साधना श्वेतार्क गणपति का एक स्वयं सिद्ध साधना है जिसके के लिए यह वृक्ष जगप्रसिद्ध है। प्राचीन समय से ही इस साधना को कई साधकों ने किया और अपनी इच्छा पूर्ण होने पर श्री श्वेतार्क गणपति का मन ही मन धन्यवाद किया। आप चाहें तो इस साधना को कर सकते है जो की बहुत कठिन नही है। इस साधना में न तो सवा लाख जप एवं जप के दशांश होम की व्यापकता है न ही मंत्र के पुरश्चरण की इसलिए जातक वैशाख या भाद्र के महीने में पड़ने वाली किसी रविपुष्यामृत योग में इस साधना को सम्पन्न कर लाभान्वित हो सकते है। अनेक जानकर व्येक्तियों के लिए ये साधना अनुभूत और स्वयंसिद्ध साधनाओं में से एक है। इस साधना को सही विधि से करके कइयों की जिंदगी ही बदल चुकी है तथा श्री श्वेतार्क गणपति के आशीर्वाद से धन ऐश्वर्य से संपन्न होकर सुखी जीवन व्येतीत कर चुके हैं।
अगर आप पूर्ण नियमानुसार इस पूजा को सम्पन्न न कर सकें तो रविपुष्य के दिन विधिवत इसको गणपति का आकार देकर वास्तु या घर के ईशान कोण में स्थापित करके दूर्वा, लाल कनेर या लाल पुष्पों आदि से पंचोपचार द्वारा नियमित पूजा अर्चना भी कर सकते है। लाल कनेर और दूर्वादल से यह पूजा बहुत प्रभावशाली मानी जाती है यदि लाल कनेर पुष्प की प्राप्ति संभव न हो तो भी ये पूजा सम्पूर्ण कराई जा सकती है जिसके लिए वैशाख या भाद्र का महीना सर्वश्रेष्ठ है।आदरनीय पाठकगण इस साधना के विषय मे और जानकारी प्राप्त करने हेतु हमारे ज्योतिष कार्यालय से संपर्क कर सकते है।
भाग्य को प्रसन्न करने के लिए श्वेतार्क के विषय में प्राचीनकाल से एक तांत्रिक विधि भी प्रचलित है की रविपुष्य के दिन विधिवत जड़ को स्वर्ण या चांदी की ताबीज़ में भरकर कलाई पर बांधने से भाग्य सुप्रसन्न होने लगता है। इस सरल नियम को अपनाकर आप भी अपने सौभाग्यवर्धक कार्य को सम्पन्न कर सकते है।धन्यवाद।
वास्तु में श्वेतार्क कहाँ लगाएं -
श्वेतार्क को संस्कृत में अर्क भी कहाँ जाता है। सूर्य देव के नामों में अर्काय नमः भी कहा गया है। इसलिए श्वेतार्क सूर्य का प्रतिनिधित्व स्वरूप होने के कारण इस वृक्ष को पूर्व के मध्य, ईशान के पूर्वी अंश या पूर्व में मुख्य द्वार हो तो पूर्वी मुख्यद्वार के पूर्वी चारदीवारी के मध्य या दरवाजे के दाहिनी तरफ चारदीवारी में रविपुष्य के दिन स्थिर लग्न सिंह या रवि के होरा में लगाना श्रेष्ठ रहता है। उत्तरायण में या गोचर में रवि शुभ राशि में होने पर यदि रविपुष्य का दिन मिले तो इसे इस दिशा में लगाएं। उत्तर दिशा में भी इस वृक्ष को लगाया जा सकता है जिसके लिए गुरुपुष्यामृत का दिन सर्वश्रेष्ठ माना गया है। सूर्य की प्रसन्नता से मान सन्मान, राजकीय या सरकारी कृपा की प्राप्ति, उन्नति एवं सफलता मिलती है। रोजाना इस वृक्ष की जड़ में हल्दी वाला जल, दुर्व एवं लाल कनेर पुष्प से सेवा करने पर ये वृक्ष शुभफलदायी होने लगता है। इस वृक्ष को पश्चिम और नैऋत्य दिशा में कभी नही लगाएं इससे विपरीत फल यानी मान-सन्मान की हानि, राजकीय एवं सरकारी विघ्न एवं पितृदोष उत्त्पन्न होने की संभावना बनती है।
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