बृहस्पति वक्री होने पर
बृहस्पति वक्री होने पर-
बृहस्पति अध्यात्म, अगम ज्ञान, बुद्धि तथा विद्या, शिक्षा, वाक पटुता, उत्तम परामर्शदाता, धन और संतान सुख का दाता ग्रह माने जाते है। गुरु वक्री होकर अशुभ फल देने पर बचालता या अधिक बोलना, स्थान, काल या पात्र ज्ञान रहित होने पर मूर्खतापूर्ण वार्तालाप करना, बाहर साधुओं जैसा आचरण तथा अंदर पाखंडी, खुद का महिमा मंडन करने वाला तथा धन का लोभी बनाकर दूसरों के धन का गबन आदि करने वाला बनाता है।
प्राचीनकाल में असुर राजाओं द्वारा संत महात्माओं और यज्ञकर्ता वैदिक ब्राह्मणों पर अत्याचार होता रहा है इसलिए इनका वक्री होना इन सबके लिए बेहद अशुभ संकेत है। बृहस्पति वक्री होने का सर्वाधिक असर साधु संत-महात्माओं पर होता है। उनके चाल-चलन पर आरोप प्रत्यारोप लगने आरम्भ हो जाते हैं जिससे अपमान या सामाजिक गरिमा का ह्रास होने लगता है।
गुरु को सृष्टि का आध्यात्मिक ज्ञान प्रदाता कहा गया है, ये ब्रह्मज्ञान, शिक्षण संस्थाओं, भारी उद्योगों, बैंकों, जीवन बीमा निगम जैसी संस्थाओं, गैस के भंडारों, धार्मिक कार्यों, धर्माचार्यों एवं शासन सत्ता के सलाहकारों के कारक हैं। इनके वक्री होने की घटना को व्याहारिक दृष्टि से देखें तो महत्व समझ में आयेगा कि जो व्यक्ति आप को सद्बुद्धि-सन्मार्ग पर ले जाता है वही आप से मुंहफेर ले तो कैसा लगेगा, आप पर क्या गुजरेगी ! बस वक्री का अर्थ यही होता है।
कालजयी रचनाकार श्री राम दयालु के संकेत निधि के अनुसार मंगल व बुध जिस भाव मे वक्री होते है उस भाव राशि से चतुर्थ भाव का भी फलदान करते है जैसे कि बुध यदि लग्न में वक्री हों तो बुध लग्न अपेक्षा चतुर्थ भाव का फल अधिक प्रदान करेंगे। इसी प्रकार से बृहस्पति, शुक्र एवं शनि वक्री होने पर अपने स्थित राशि से पंचम, सप्तम एवं नवम भाव के फल के फलों को प्रदान करने वाले माने गए है। सर्वार्थ चिंतामणि के अनुसार वक्री ग्रह अपने उच्च स्थान के अलावा किसी भी स्थान में वक्री होने पर विशेष शुभफल प्रदानकारी माना गया है तथा वक्री ग्रह जिस भाव में स्थित होते है तथा जिस भाव में उनकी दृष्टि होती है उसके फल को भी प्रदान करने वाले होते है। शुभ ग्रह वक्री होने पर ज्यादा बलवान तथा अशुभ ग्रह के वक्री होने को अधिक अशुभ फल प्रदानकारी माना गया है। भिन्न शास्त्रकारों के अनुसार वक्री ग्रह अपने स्थित भाव से पूर्व भाव को अर्धदृष्टि से देखता है ऐसा माना गया है। चाहे जो भी हो विभिन्न शास्त्रकारों के एकमत से ये माना गया है कि अपने उच्च स्थान स्थित वक्री ग्रह को नीचस्थ राशि में स्थित होने जैसा फल तथा नीचस्थ राशि में स्थित वक्री ग्रह को उच्चस्थ राशि में स्थित होने जैसा फल प्रदानकारी माना गया है।
शास्त्रकारों के मतानुसार वक्री ग्रह स्थान भेद से कुंडली में स्थित राजयोग आदि को नष्ट करने वाला भी माना गया है वैसे तो वक्री ग्रह के कई विषय में शास्त्रकारों के मत में अनेक भिन्नता ही दृष्टिगोचर होता है परंतु हमें महर्षि पराशर के मत को ही उचित एवं सही मानकर चलना चाहिए। जैसे कि मंगल और बुध वक्री होने पर अवस्थित राशि से चतुर्थ भाव का, बृहस्पति वक्री होने पर अवस्थित राशि से पंचम भाव का, शुक्र वक्री होने पर अवस्थित राशि से सप्तम भाव का फल प्रदानकारी होता है इसीको सही मानकर जन्मकुण्डली के फलों का निरीक्षण करना उचित एवं सही माना गया है। वक्री ग्रहगण अपने अपने दशा-अंतर्दशाओं में ईसी प्रकार से फल प्रदानकारी माना गया है। सुधि पाठकों के निमित्त मानव जीवन पर विभिन्न ग्रहों के प्रभाव का फल निम्नलिखित इस प्रकार से विचार करना चाहिए। लग्नेश वक्री होने पर शारीरिक कमजोरी, दुर्बलता, अंगों में तिल, दाग या अंगों की त्रुटि आदि का फल प्रदान करने वाला माना गया है। द्वितीयेश वक्री होने पर अवैध या अस्वाभाविक उपाय द्वारा धन उपार्जन करने वाला माना गया है। पंचमेश वक्री होने पर सनकी या अस्थिर बुद्धि वाला होता है तथा सोचे गए सिद्धान्तों की गलती सामने आती है। सप्तमेश वक्री होने पर विवाह में विलंब एवं दाम्पत्य जीवन जीवन में अशांति को लाने वाला माना गया है। ऐसे जातकों की यौन लिप्सा भी अस्वाभाविक रूप से वृद्धि होती है। जन्म कुंडली मे तीन या तीन से अधिक ग्रह वक्री होने पर शारीरिक रोग या किसी आकस्मिक दुर्घटना की संभावना बनी रहती है।
मंगल के वक्री होने पर एक से अधिक बार दुर्घटना या शारीरिक रोग इत्यादि की संभावना बनी रहती है। नवमेश वक्री होने पर भाग्यशाली व यश लाभकारी फल देने वाला होता है। शुक्र वक्री होने पर यौनशक्ति में कमी लाता है। सप्तम भावस्थ शनि वक्री होने पर मानव को महान एवं यशवान बनाता है तथा शनि नवम भाव में वक्री होने पर उच्चपद आदि को प्राप्त करने वाला होता है। मंगल वक्री
होने पर रक्त से संबंधित रोग, दुर्घटना, हड्डियों की समस्या, एक से अधिक बार ऑपरेशन को दर्शाता है। बुध के वक्री होने पर विस्मृत, स्मृतिकोष का क्षय ( memory cell damage ) एवं दुष्ट चरित्र बनाता है। बृहस्पति वक्री होने पर शिक्षा से अभिमानी, गर्वित, स्वार्थी इत्यादि फल देने वाला माना गया है। शुक्र वक्री होने पर यौन विकार या यौन शक्ति की कमी, बदला लेने वाला इत्यादि फलदायी होता है। शनि वक्री होनेपर शारीरिक दर्द, वायु रोग, गाउट, साइटिका, पैरालिसिस या कफ इत्यादि दोष उत्पन्न करने वाला माना गया है। शनि को साधारण रूप से चतुर्थ भाव में अशुभ माना गया है तथा यही शनि वक्री होने पर अशुभ फलों में वृद्धि होती है। चतुर्थ में शनि वक्री होने पर अपने जन्मस्थान को छोड़कर विदेश या अन्यत्र रहने वाला होता है। द्वितीय में शनि वक्री हों तो अपने धन के विषय में सतर्क रहता है एवं परिवार के सदस्यों के प्रति उसके प्रेम या सहानुभूति में कमी लाता है। शनि पंचम भाव में वक्री हों तो जातक को ऐसा लगने लगता है कि उसके भावनाओं की कोई कद्र करने वाला नही है। यही शानि सप्तम भाव में वक्री होने पर अधिक उम्र का पति या पत्नी से विवाह या ममता विहीन होने से दाम्पत्य जीवन के सुख में कमी लाता है।
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