कार्तिकत्यच माहात्म्यं ब्रूंं हि सूत! ममाग्रतः
तद्व्रतस्य फलं किं वा दोपं किं तदकुर्वतः।
पुरैकदा मुनिश्रेष्ट ! व्यासं सत्यवतीसुतम् ।
जैमिनिः पृष्टवानेतदारेभे कथितु' मुनिः ।
तिलतैलं मैथुनं यः शुभदेकारत्तिके त्यजेत् ।
बहुजन्मकृतैःपाषै मुं क्तोयाति हरेगृंहम् ।
मत्स्यं च मैथुनंयो वै कार्तिके न परित्यजेत्।
प्रतिजन्मनि संमूढः शूकरश्च भवेद्घ्रु वम् ।
कार्त्तिके तुलसीपत्न: पूजयेद्वं जनार्दनम् ।
पत्रेपत्रेऽश्वमेधस्य फलं प्राप्नोति मानवः ।
कार्तिके मुनिपुष्पैर्यः पूजयेन्मधुसूदनम् ।
देवानां दुर्लभं मोक्ष' प्राप्नोति कृपया हरेः ।
कार्तिके मुनिशाकं वै योऽश्नाति च नरोत्तमः।
संवत्सरकृतंपापं शाकेनैकेन नश्यति ।
फलं तस्य नरोऽश्नाति चोर्जे यो वै हरिप्रये ।
प्रदाय तु हरेब्रं ह्म्वृजिनं कोटिजन्मजम् ।
शौनकजी ने कहा-हे सूतजी ! अब आप कृपा करके मेरे आगे कार्तिक मास के माहात्म्य का वर्णन कीजिए। इस व्रत के करने से क्या फल प्राप्त होता है ? और यदि कोई इस व्रत को नहीं किया करता है तो उसे क्या दोष लगता है ?
श्री सूतजी ने कहा-हे मुनिश्रेष्ठ-
सत्यवती के पुत्र व्यास देवजी से जेमनी मुनि ने यह पूछा था उस समय मुनिवर ने यही कहना आरम्भ किया था-व्यासजी ने कहा था परम शुभ के प्रदान करने वाले कार्तिक मास में जो पुरुष तिलों का तैलऔर मैथुन का त्याग कर देता है वह पुरुष बहुत से जन्मों के किए पापों मुक्त होकर श्री हरि के पद की प्राप्ति किया करता है। जो पुरुष कार्तिक मास में मत्स्यों का आहार और मैथुन का त्याग नहीं किया करते हैं वह प्रत्येक जन्म संमूढ़ निश्चय ही शुकर की योनि में जन्म ग्रहण किया करता है। कात्तिक में तुलसी के दलों से जनार्दन भगवान् का अर्चन करना चाहिए। एक-एक तुलसी के पत्र के समर्पित करने से मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त किया करता है। कात्तिक
में (अगस्य) पुष्पों से जो मधुसूदन भगवान् का पूजन किया करता है वह मतुष्य देवों को भी महा दुर्लभ जो मोक्ष होता है उसे श्रीहरि की कृपा से प्राप्त कर लेता है। कात्तिक में जो नरों में परम श्रेष्ठ पुरुष मुनि शाक का अशन (भोजन) करता है वह एक वर्ष भर में किए हुए पापों को एक ही शाक के अथन मात्र से नष्ट कर दिया करता है। श्रीहरि का परम प्रिय ऊर्जमास में जो उसके फल का अशनकरता है वह हे ब्राम्हण ! करोड़ो जन्म के पापों को हरि की कृपा से नष्ट कर देता है।
सुरसं सर्पिशा युक्तं दद्याद्यो हरयेऽपिच ।
सर्व पापैविनिर्मूक्तः सगच्छेद्धरिमन्दिरम् ।
कार्तिके यो नरो दद्यादेकपद्म हरावपि ।
अन्ते विष्णुपदं गच्छेत्सर्वपापविवर्र्जितः ।
प्रातः स्नान नरो योवै कार्तिके श्रीोहरिप्रिये ।
करोति सर्वतीर्थेषु यत्स्नात्वातत्फलंलभेत् ।
कार्तिके यो नरोदद्यात्प्रदीपं नभसि द्विजः ।
विप्रहत्यादिभिः पापैर्मुक्तो गच्छेद्धरे गृहम् ।
मुहर्तमपि य दद्यात्कारतिके प्रोतये हरेः ।
दीपं नभसि विप्रेन्द्र ! तस्मिस्तुष्टः सदाहरिः।
यो दद्याच्च गृहे दीपं कृष्णस्य सघृतं द्विजः ।
कार्तिक चाश्वमेधस्य फलंस्याद्व दिने दिने ।
जो पुरुष सपि (घृत) से युक्त सुरस पदार्थ को हरि की सेवा में समर्पित करता है वह समस्त पापों से विमुक्त होकर श्री हरि के मन्दिर में गमन किया करता है। कार्तिक में जो मनुष्य एक भी पद्म का पुष्प श्री हरि को समर्पित किया करता है बह अन्त में समस्त पापो से छुटकारा पाकर विष्णु के पद की प्राप्ति किया करता है। भगवान के परमप्रिय कार्त्तिक मास में सूर्योदय से भी पूर्व नित्य स्नान किया करता है वह इतना पुण्य का भागो हो जाता है जैसा कोई सम्पूर्ण तीर्थ स्थानों में स्नान करने वाला हुआ करता है। जो द्विज कार्तिक में आकाश द्वीप का दान किया करता है वह विप्रहत्या आदि के महान् पातकों से विमुक्त होकर श्रीहरि के मन्दिर में अन्त में प्राप्त हो जाया करता है । हे वि्रेन्द्र ! जो व्यक्ति एक मुहूत्त मात्र (ढ़ाई घड़ी) के लिये भी कार्त्तिक मास में हरि की प्रीति के लिए दीपक का दान किया करता है अर्थात आकाश दीप देता है उससे श्रीहरि भगवान् परम सन्तुष्ट हुआ करते हैं और सदा की प्रसन्न रहते है। जो द्विज घृत का दीप घर में ही श्री कृष्ण भगवान् के लिए दान किया करता है और कार्तिक मास में ऐसा करे तो प्रतिदिन के अश्वमेघ यज्ञ के फल का भागी होता है।
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