बुध महादशा केतु अंतर्दशा
विंशोत्तरी दशा के सिद्धांत-
लग्न का स्वामी चतुर्थ, दशम अथवा एकादश भाव में हो तो वह अनेक दोषों का दूर करता है। शुक्र तथा वृहस्पति यदि केन्द्र के स्वामी होकर केन्द्र में ही बैठे हो इन्हें बलवान दोषी यानी अशुभ माना जाता है । त्रिक (षष्ठ, अष्टम तथा द्वादश) भाव का स्वामी त्रिक में ही हो तो शुभ फल प्राप्त होता है अन्यथा त्रिकेश जिस भाव मे बैठता हैं, उस भाव के फल की हानि होती हैं । इसी प्रकार, जिस भाव का स्वामी त्रिक में बैठता है, उस भाव की भी हानि होती है अर्थात त्रिकेश जिस भाव में बैठा हो अथवा जिस भाव का स्वामी त्रिक में बैठा हो, उस भाव के फल में अशुभता (न्यूनता) आ जाती है। त्रिकेश जिस भाव में बैठा हो, उसी भाव का स्वामी यदि त्रिक में हो तो उस भाव की जिस में त्रिकेश बैठा हो अधिकहानि होती है। त्रिकेश त्रिकस्थ न होकर किसी अन्य भाव में हो एवं वहां स्वगृही भी न हो तथा त्रिकेश जिस भाव में बैठा हो उस का स्वामी यदि स्वगृही हो तो चिरस्थायी अशुभ फल नही होता।
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