वक्री ग्रह के फल

Kaushik sharma
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वक्री ग्रह के फल




वक्री ग्रह के फल विभिन्न प्रकार के होते है। नवग्रह गणों में रवि और चंद्र हमेशा मार्गी (direct motion) होते है। राहु और केतु सर्वदा ही वक्री गति से चलने वाले तथा मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र एवं शनि कभी मार्गी तो कभी वक्री चाल चलने वाले होते है। वक्री ग्रह वो ग्रह है जिसकी गति पृथ्वी से कम या दूसरे अर्थ से पीछे की और अग्रसर होने से है जिसे इंग्लिश में (backward motion) कहा जाता है। अगर कोई यान 50 km प्रति घंटा एवं दूसरे यान 30 km प्रति घंटा की रफ्तार से चले तो पहले यान से दूसरा यान उल्टी दिशा दिशा की अग्रसर होने का एहसास होता है।ऐसा अनुभव कई बार ट्रैन के सफर में मिल जाया करता है। वक्री ग्रह ठीक इसी प्रकार से गोचर काल में सभी को भ्रमित करने वाला होता है परंतु फलित ज्योतिष के अनुसार इसे ग्रहों के गति की शक्ति या शक्ति के प्रयास बल को ही माना जाता है। जैसे कि कोई आदमी अचानक स्वाभाविक रूप से चलते चलते कभी कभी धीर गति से चलने लगता है ठीक उसी प्रकार से ही ग्रहगणों के उस धीर गति को ही वक्री कहा जाता है। बृहतजातक के रचनाकार श्री वराहमिहिर के अनुसार ग्रहगणों में मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र एवं शनि ग्रह वक्री होने पर अधिक गति शक्ति को प्राप्त करने वाले माने जातें है। ज्योतिष नियमानुसार प्रत्येक ग्रह अपने एक निर्दिष्ट समयकाल तक वक्री होते है।जैसे कि मंगल ४५ दिन, बुध २४ दिन, बृहस्पति १२० दिन, शुक्र, ४२ दिन एवं शनि १४० दिन का समय वक्री काल का समय होता है। वक्री होने से पूर्व ये सभी ग्रह कुछ दिनों तक स्थिर अवस्था में रहते है जैसे की मंगल ३ दिन, बुध १ दिन, बृहस्पति ५ दिन, शुक्र २ दिन एवं शनि ५ दिन।



कालजयी रचनाकार श्री राम दयालु के संकेत निधि के अनुसार मंगल व बुध जिस भाव मे वक्री होते है उस भाव राशि से चतुर्थ भाव का भी फलदान करते है जैसे कि बुध यदि लग्न में वक्री हों तो बुध लग्न अपेक्षा चतुर्थ भाव का फल अधिक प्रदान करेंगे। इसी प्रकार से बृहस्पति, शुक्र एवं शनि वक्री होने पर अपने स्थित राशि से पंचम, सप्तम एवं नवम भाव के फल के फलों को प्रदान करने वाले माने गए है। सर्वार्थ चिंतामणि के अनुसार वक्री ग्रह अपने उच्च स्थान के अलावा किसी भी स्थान में वक्री होने पर विशेष शुभफल प्रदानकारी माना गया है तथा वक्री ग्रह जिस भाव में स्थित होते है तथा जिस भाव में उनकी दृष्टि होती है उसके फल को भी प्रदान करने वाले होते है। शुभ ग्रह वक्री होने पर ज्यादा बलवान तथा अशुभ ग्रह के वक्री होने को अधिक अशुभ फल प्रदानकारी माना गया है। भिन्न शास्त्रकारों के अनुसार वक्री ग्रह अपने स्थित भाव से पूर्व भाव को अर्धदृष्टि से देखता है ऐसा माना गया है। चाहे जो भी हो विभिन्न शास्त्रकारों के एकमत से ये माना गया है कि अपने उच्च स्थान स्थित वक्री ग्रह को नीचस्थ राशि में स्थित होने जैसा फल तथा नीचस्थ राशि में स्थित वक्री ग्रह को उच्चस्थ राशि में स्थित होने जैसा फल प्रदानकारी माना गया है।



शास्त्रकारों के मतानुसार वक्री ग्रह स्थान भेद से कुंडली में स्थित राजयोग आदि को नष्ट करने वाला भी माना गया है वैसे तो वक्री ग्रह के कई विषय में शास्त्रकारों के मत में अनेक भिन्नता ही दृष्टिगोचर होता है परंतु हमें महर्षि पराशर के मत को ही उचित एवं सही मानकर चलना चाहिए। जैसे कि मंगल और बुध वक्री होने पर अवस्थित राशि से चतुर्थ भाव का, बृहस्पति वक्री होने पर अवस्थित राशि से पंचम भाव का, शुक्र वक्री होने पर अवस्थित राशि से सप्तम भाव का फल प्रदानकारी होता है इसीको सही मानकर जन्मकुण्डली के फलों का निरीक्षण करना उचित एवं सही माना गया है। वक्री ग्रहगण अपने अपने दशा-अंतर्दशाओं में ईसी प्रकार से फल प्रदानकारी माना गया है। सुधि पाठकों के निमित्त मानव जीवन पर विभिन्न ग्रहों के प्रभाव का फल निम्नलिखित इस प्रकार से विचार करना चाहिए। लग्नेश वक्री होने पर शारीरिक कमजोरी, दुर्बलता, अंगों में तिल, दाग या अंगों की त्रुटि आदि का फल प्रदान करने वाला माना गया है। द्वितीयेश वक्री होने पर अवैध या अस्वाभाविक उपाय द्वारा धन उपार्जन करने वाला माना गया है। पंचमेश वक्री होने पर सनकी या अस्थिर बुद्धि वाला होता है तथा सोचे गए सिद्धान्तों की गलती सामने आती है। सप्तमेश वक्री होने पर विवाह में विलंब एवं दाम्पत्य जीवन जीवन में अशांति को लाने वाला माना गया है। ऐसे जातकों की यौन लिप्सा भी अस्वाभाविक रूप से वृद्धि होती है। जन्म कुंडली मे तीन या तीन से अधिक ग्रह वक्री होने पर शारीरिक रोग या किसी आकस्मिक दुर्घटना की संभावना बनी रहती है। मंगल के वक्री होने पर एक से अधिक बार दुर्घटना या शारीरिक रोग इत्यादि की संभावना बनी रहती है। नवमेश वक्री होने पर भाग्यशाली व यश लाभकारी फल देने वाला होता है। शुक्र वक्री होने पर यौनशक्ति में कमी लाता है। सप्तम भावस्थ शनि वक्री होने पर मानव को महान एवं यशवान बनाता है तथा शनि नवम भाव में वक्री होने पर उच्चपद आदि को प्राप्त करने वाला होता है। मंगल वक्री होने पर रक्त से संबंधित रोग, दुर्घटना, हड्डियों की समस्या, एक से अधिक बार ऑपरेशन को दर्शाता है। बुध के वक्री होने पर विस्मृत, स्मृतिकोष का क्षय ( memory cell damage ) एवं दुष्ट चरित्र बनाता है। बृहस्पति वक्री होने पर शिक्षा से अभिमानी, गर्वित, स्वार्थी इत्यादि फल देने वाला माना गया है। शुक्र वक्री होने पर यौन विकार या यौन शक्ति की कमी, बदला लेने वाला इत्यादि फलदायी होता है। शनि वक्री होने पर शारीरिक दर्द, वायु रोग, गाउट, साइटिका, पैरालिसिस या कफ इत्यादि दोष उत्पन्न करने वाला माना गया है। शनि को साधारण रूप से चतुर्थ भाव में अशुभ माना गया है तथा यही शनि वक्री होने पर अशुभ फलों में वृद्धि होती है। चतुर्थ में शनि वक्री होने पर अपने जन्मस्थान को छोड़कर विदेश या अन्यत्र रहने वाला होता है। द्वितीय में शनि वक्री हों तो अपने धन के विषय में सतर्क रहता है एवं परिवार के सदस्यों के प्रति उसके प्रेम या सहानुभूति में कमी लाता है। शनि पंचम भाव में वक्री हों तो जातक को ऐसा लगने लगता है कि उसके भावनाओं की कोई कद्र करने वाला नही है। यही शानि सप्तम भाव में वक्री होने पर अधिक उम्र का पति या पत्नी से विवाह या ममता विहीन होने से दाम्पत्य जीवन के सुख में कमी लाता है।



ऐसे जातकों के संतानों का किसी विधवा से संपर्क या विवाह होने की संभावना बनी रहती है। शनि यदि नवम भाव में वक्री हों तो सांसारिक सुख से दूर रहने वाला, संन्यास योग या सन्यासी जैसा आचरण करने वाला, कोई कोई जातक दण्डधारी सन्यासी भी होता है। दशम भाव मे शनि के वक्री होने पर नौकरी या अपने कार्यरत कर्म में कभी अचानक उन्नति तो कभी पतन का मार्ग सुनिश्चित करने वाला माना जाता है। एकादश भावस्थ वक्री शनि से पारिवारिक उत्तरदायित्व की वृद्धि होती है तथा अपने उत्तरदायित्व को खूबी से निभाने  वाला होता है।  लग्न में वक्री बुध स्नायु उत्तेजनाओं की वृद्धि करने वाला माना गया है। सप्तम भाव में बुध के वक्री होने पर नारी को कई पुरुषों का संग प्राप्त होता है तथा बातूनी प्रकृति की वजह से दाम्पत्य जीवन की शांति भंग होती है। द्वितीय भाव में मंगल वक्री होने पर मनुष्य की तार्किक प्रकृति होती है तथा दूसरों के राय पर ध्यान न देने वाला होता है। द्वितीय भाव में बृहस्पति वक्री हों तो बातचीत में स्टाइल करने वाला एवं अत्यधिक धन व्येय करने वाला माना गया है। बृहस्पति योगकारी होकर एकादश भाव में वक्री हों सामाजिक मान-सन्मान की वृद्धि होती है। शुक्र के सप्तम भाव में वक्री होने पर मनुष्य को अत्यधिक कामी, किसी के साथ गहन संपर्क नही रखने वाला एवं किसी एक पुरुष  या स्त्री से संतुष्ट न होने वाला बनाता है। अष्टम भाव में गुरु और शनि वक्री होने पर अशुभ फलदायी माने गए है। वक्री ग्रह अस्थिमित होने पर कभी फलदान करने में सक्षम या कभी बलहीन होते है। वक्री ग्रह यदि मार्गी ग्रह के नक्षत्र में हों तो कई बाधाओं के पश्चात घटनाओं के घटने की भी संभावना बनी रहती है। कोई वक्री ग्रह किसी दूसरे वक्री ग्रह के नक्षत्र में हों तो किसी भी प्रकार से शुभ फल प्रदान करने में असमर्थ होते है। जन्मकुण्डली में किसी बाधक या मारक ग्रह के वक्री होने पर अशुभ फलों में वृद्धि होती है। जन्मकुण्डली में स्थित वक्री ग्रह के फलों का वर्णन अत्यंत सावधानता के करना चाहिए।  

















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