Mangal mahadasha ketu antardasha

Kaushik sharma
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      Mangal mahadasha ketu antardasha





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मंगल महादशा केतु अंतर्दशा कालावधि- ० वर्ष- ४ माह- २७ दिन।

जन्मकुण्डली में केतु केंद्र-कोण, एकादश एवं तृतीय भाव में शुभ हों तो ऐसे अंतर्दशा काल में धन-धान्य का लाभ, पुत्रादि लाभ, प्रभावशाली व्येक्ति का स्नेह लाभ एवं सुख व शांति की प्राप्ति होती है। केतु यदि योगकारी ग्रह से सम्बन्धयुक्त हों पुत्रलाभ, उच्चपद या नेतृत्व आदि लाभ होता है। केतु नीच राशिगत, बलहीन तथा अशुभ ग्रह युक्तदृष्ट हों या दशापति मंगल से ६,८,१२ भाव में हों या पाप ग्रह युक्त हों हिंसक पशु द्वारा भय व क्षति, चर्मरोग या ज्वरादि रोग, चोरी द्वारा क्षति की प्राप्ति होती है। केतु दितीय एवं सप्तम भाव में हों तो धन-धान्य का नाश, कठिन रोग, मानहानि व अनुताप आदि प्राप्त करता है। सम्पूर्ण अशुभ केतु के अंतर्दशा में चारों और से अशांति छाने लगती है तथा कलह, दंतरोग, चोर या हिंसक जंतुओं से पीड़ा, ज्वर, अन्य शारीरिक रोग, सन्ताप आदि को प्राप्त करने वाला होता है।


विंशोत्तरी दशा के सिद्धांत-



शीर्षोदय राशि-मिथुन, कन्या, सिंह, तुला, वृश्चिक एवं कुम्भ। पृष्ठोदय राशि- मेष, वृष, कर्कट, धनु एवं मकर राशि। शीर्षोदय राशि में स्थित ग्रह अपनी दशा के पूर्वार्ध में तथा पृष्ठोदय राशि में स्थित ग्रह अपनी दशा के उत्तरार्ध में फल प्रदान करते है। फलादेश का निर्णय करते समय ग्रहों की उच्च-नीच, स्वक्षेत्री, शत्रुक्षेत्री इत्यादि विभिन्न भावों तथा विभिन्न राशियों में स्थिति के अतिरिक्त उनके साथ अन्य ग्रहों की युति तथा शुभाशुभ दृष्टि का विचार करना भी अत्यन्त आवश्यक है क्योकि इन सबके कारण किसी भी ग्रह के मुख्य फलादेश में भारी अन्तर आ सकता है। जातक के जन्म के समय कौन-सा ग्रह वक्री और मार्गी था, इसका ज्ञान भी उस समय के पचाङ्ग द्वारा प्राप्त किया जाता है। जन्म के समय जो ग्रह मार्गी होता है वह जीवन भर मार्गी के रूप में तथा जो वक्री होता है, वह जीवन भर वक्री ग्रह के रूप में ही अपना स्थायी-फल प्रदान करता रहता है।




इसके अतिरिक्त पचाङ्ग में उल्लखित दैनिक गोचर-गति के अनुसार जो यह मार्गी अथवा वक्री होते रहते हैं, वे भी जातक के जीवन के तदनुसार ही अपना अस्थाई-प्रभाव अलग से डालते हैं। मार्गी का अर्थ है--वह ग्रह, जो सौरमण्डल में अपने मार्ग पर सीधा आगे की ओर बढ़ रहा हो अर्थात यि कोई ग्रह किसी समय सिंह राशि में हो तो उसे उस राशि पर अपना भोग-काल समाप्त करने के बाद आगे कन्या राशि पर जाना चाहिए। तत्पश्वात् क्रमश: तुला आदि अन्य राशियों में भ्रमण करना चाहिए। जो ग्रह ऐसा ही करता है, वह 'भार्गी कहलाता है। वक्री' का अर्थ है-वह ग्रह, जो अपने मार्ग पर सीधा चलने की बजाय पीछे की ओर लौट आता है अर्थात् यदि कोई ग्रह मकर राशि में हो और उस राशि पर अपना भोगकाल पूरा करने के बाद कुम्भ राशि में न जाकर पुनः धनु राशि में लौट आता है, तो उसे वक्री ग्रह कहा जायेगा। क्षीण, नीचस्थ, अस्त, शत्रु क्षेत्री, वक्री, त्रिकेश, तथा शत्रुगृह से दृष्ट अथवा युक्त गृह पापी अर्थात् अशुभ माने जाते हैं। बली, उच्चस्थ, उदित, मार्गो, स्वक्षेत्री, मित्रक्षेत्री, अति मित्रक्षेत्री, मूल त्रिकोणस्थ अथवा इनसे युक्त या इष्ट गृह शुभ माने जाते हैं।



त्रिकोण पंचम तथा नवमभाव को सर्वोत्तम केन्द्र लग्न या प्रथम, भाव, चतुर्थ, सप्तम तथा दश म भाव को उत्तम न त्रिक षष्ठ, अष्टम तथा द्वादश भाव को अशुभ एवं द्वितीय, तृतीय तथा एकादश भाव को माध्यम माना जायेगा। स्वाभाविक शुभ-अशुभ गूह शुभ-अशुभ भावपति होकर शुभ अशुभ फल देते है अर्थत् शुभभावपति यदि अशुभ गृह हो तो भी वह शुभ फ़ल ही देगा इसी प्रकार यदि अशुभ भावपति शुभ गह हो तो वह अशुभ फल ही देगा। भावेश विधान के कारण ही शुभ तथा अशुभ गृह अपने स्वभाव के विपरीत अथवा अनुकूल फल देने का बाध्य होते हैं। तृतीय तथा एकादश भाव में प्रत्येक ग्रह को बली माना जाता है।



परन्तु इन भावों में सौम्य ग्रह की अपेक्षा क्रूर गह अधिक वलवान समझे जाते हैं। शनि, राहु, सूर्य, मंगल ये ग्रह क्रम से अधिक पापग्रह है। ये ग्रह पाप ग्रह कि राशियों में रहने पर विशेष पापी तथा शुभगूह की राशि, मित्रग्रह की राशि एवं अपनी उच्च राशि में रहने से अल्प पापी होते है। इसी प्रकार बृहस्पति, चंद्र, शुक्र, बुध एवं केतु ये ग्रह क्रम से अधिक शुभ ग्रह है। ये शुभग्रह की राशि में रहने से अधिक शुभ तथा पापग्रह की राशि में रहने से अल्प शुभ होते है। लग्न, चतुर्थ, पंचम सप्तम, नवम तथा दशम भावों में शुभा ग्रहों का रहना शुभ होता है। बृहस्पति यदि प्रथम, चतुर्थ, पंचम, नवम तथा दशम भाव में स्थित हो उसे एक लाख दोषों को नष्ट करने वाला माना जाता है। इन्हीं स्थानों में यदि शुक्र हो तो दस हजार दोषों को दूर करने वाला तथा बुध हो तो एक हजार दोषों को दूर करने वाला माना जाता है। सूर्य एकादश भाव में हो अथवा चनद्रमा शुभ लग्न में हो तो वह दोनों नवांश दोषों को नष्ट कर देते हैं।




लग्न का स्वामी चतुर्थ, दशम अथवा एकादश भाव में हो तो वह अनेक दोषों का दूर करता है। शुक्र तथा वृहस्पति यदि केन्द्र के स्वामी होकर केन्द्र में ही बैठे हो इन्हें बलवान दोषी यानी अशुभ माना जाता है । त्रिक (षष्ठ, अष्टम तथा द्वादश) भाव का स्वामी त्रिक में ही हो तो शुभ फल प्राप्त होता है अन्यथा त्रिकेश जिस भाव मे बैठता हैं, उस भाव के फल की हानि होती हैं । इसी प्रकार, जिस भाव का स्वामी त्रिक में बैठता है, उस भाव की भी हानि होती है अर्थात त्रिकेश जिस भाव में बैठा हो अथवा जिस भाव का स्वामी त्रिक में बैठा हो, उस भाव के फल में अशुभता (न्यूनता) आ जाती है। त्रिकेश जिस भाव में बैठा हो, उसी भाव का स्वामी यदि त्रिक में हो तो उस भाव की जिस में त्रिकेश बैठा हो अधिकहानि होती है। त्रिकेश त्रिकस्थ न होकर किसी अन्य भाव में हो एवं वहां स्वगृही भी न हो तथा त्रिकेश जिस भाव में बैठा हो उस का स्वामी यदि स्वगृही हो तो चिरस्थायी अशुभ फल नही होता।


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